Wednesday, April 21, 2010

ब्लॉग जगत और व्यवस्था पर व्यंग करती कविताओं कि सार्थकता -----?

आज बहुत दिनों बाद आलेख के वजाय कविता का सहारा लेने का सोचा है, इस देश कि सड़ चुकी व्यवस्था का चित्रन करने तथा यह जानने के लिए कि ब्लोगरों कि क्या प्रतिक्रिया आती है,मेरे इस प्रयास पर ?
आज मैंने विषय चुना है इस देश कि शिक्षा नीती ,प्रस्तुत है आपकी सेवा में /

बच्चों 
*इस देश में ^^^^कि शिक्षा*   


पहले विद्वता नीती पड़ भारी थी /
अब विद्वता पड़ नीती भारी है /
पहले शिक्षा से जीवन-यापन होता था /
अब पैसों से शिक्षा प्राप्त कि जाती है /
पहले स्कूल, गाँव - शहर के कोने में होते थे /
अब यह होता है बिल्डर माफिया के ठिकाने पे /
पहले बच्चों पर शिक्षा से विचार भारी होता था /
अब बच्चों पर किताब भारी होता है /
पहले स्कूल में शिक्षा मिलती थी 
अब स्कूलों में शिक्षा बिकती है /
पहले अभिभावकों को स्कूल सकून देता था /
अब अभिभावकों का खून चूस लेता है /
पहले कभी कभार स्कूल में भ्रष्टाचार होता था /
अब भ्रष्टाचार में ही स्कूल फलता -फूलता है /
पहले इंसानियत और मानवता स्कूलों में बसती थी /
अब इंसानियत और मानवता स्कूलों से काँपती है /
पहले बच्चों से देश का भविष्य निर्धारित होता था /
अब स्कूल और देश बच्चों को तय करता है /
पता नहीं आगे क्या होगा /
इस देश का भविष्य ना जाने कैसा होगा ?
जहाँ बच्चों और उसके माता-पिता को रुलाया जाता है /
उस देश का भाग्य हमेशा के लिए बिगड़ जाता है /

2 comments:

  1. अरे आप ने तो एक एक शव्द सच बोल दिया इस सुंदर कविता मै, आज कल सच मै ऎसा ही तो हो रहा है.
    धन्यवाद

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