आज मैं ,आप सभी ब्लोगरों के सामने ,ब्लॉग जगत के धुरंधर ब्लोगरों के टिप्पणियों में छुपी उनका आक्रोश, हतासा और सहयोग के बढे हाथ कि चर्चा ,इस पोस्ट के जरिये कर रहा हूँ ,जो मेरे ख्याल से ब्लॉग के जरिये इस देश में सार्थक बदलाव लाने कि दिशा में शुभ संकेत है / मुझे यह प्रस्तुत करते हुए अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है / आपलोगों का अनुभव जानना चाहूँगा ?
ये विचार दो हफ्ते में मेरे आग्रह पर ब्लोगरों ने मेरे एक पोस्ट पर व्यक्त किया है / पिछले हफ्ते अजित गुप्ता जी उम्दा विचार के लिए सम्मानित कि गयी थी / इस हफ्ते अदा जी को यह सम्मान दिया जा रहा है / वैसे सम्मान के हक़दार तो वे सभी ब्लोगर है जो देश और समाज में बदलाव लाने कि सोच रहें हैं /अदा जी को बधाई ,साथ ही आग्रह है कि ,आप हमे अपना डाक का पता और संभव हो तो मोबाइल नंबर मुझे इ मेल या मेरे मोबाइल पर फोन कर मुझे बताने का कष्ट करें ,जिससे हम आपको सम्मान पत्र और इनाम का चेक भेज सकें / मेरा मोबाइल नंबर और इ मेल मेरे ब्लॉग से आपको मिल जायेगा /
हमने देश हित में विचारों और सुझावों के लिए एक मुहीम चलाया हुआ है ,जिसमे उम्दा विचारों और सुझावों को सम्मानित करने क़ी भी व्यवस्था है /
आप सबसे आग्रह है क़ी आप अपना बहुमूल्य विचार पोस्ट में उठाये गए मुद्दे के पक्ष,बिपक्ष या उस उद्देश से जुड़े अन्य बिकल्पों पर सार्थक विवेचना के रूप में अपना 100 शब्द जरूर लिखें / नीचे लिखे लिंक पर क्लिक करने से,वह पोस्ट खुल जायेगा जिसके टिप्पणी बॉक्स में आपको टिप्पणी करनी है /
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- nice
- विचारणीय- गंभीरता से मनन करने योग्य. विचार करके पुनः आते हैं.
- अच्छा प्रारूप. लेकिन अफ़सोस अपने देश में गुंडे छाप नेताओ के रहते इसे अमल लाना संभव नहीं है. मेरे विचार से १. केवल प्रश्न पूछने से ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती. प्रश्नकर्ता और उत्तर देने वालो की जवाबदेही भी बहुत जरुरी है. २. मुफ्त रेल पास इत्यादि का भी कोई खास औचित्य नहीं है क्योंकि मुफ्त में मिलने वाली चीजों से ही व्यक्ति भ्रष्ट होता है और मुफ्त की चीज़ ही सबसे महँगी होती है.
- BHAVESH JI SOCH WICHAR KAR AASANKA JAHIR KARNE KE LIYE DHANYWAD.YHAN MAIN AAPKI AASHANKA DUR KARNE KE LIYE ITNA HI KAHUNGA KI "JAB SARE DESH KE DESH BHAKT EK JUT HO JAYEN,TO EK LAKH DESH BHAKT BHI IS DESH KE SARE GUNDA TYPE NETAON AUR UNKE CHMCHON PAR BHARI PARENGE"
- सहमत हूं
- बहुत अच्छा विचार है ।
- जब देश में राजशाही थी तो यह अनुभव किया गया कि लोकतंत्र आना चाहिए। स्वतंत्रता के बाद भारत में लोकतंत्र आ गया अर्थात नौकरशाहों के ऊपर जन-प्रतिनिधि बैठ गया। लेकिन धीरे-धीरे यह जन-प्रतिनिधि जिसे आज गाली के रूप में नेता का प्रयोग करते हैं, ही सर्वाधिक भ्रष्ट हो गया। नौकरशाहों और नेताओं के भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता के सामने मीडिया आया। अब मीडिया ही सर्वाधिक भ्रष्ट हो चला है। इसलिए इस देश में समाज को सुधारने की आवश्यकता है। केवल प्रश्न पूछ लेने से काम नहीं चलेगा। इसके लिए जैसा आपने एक लम्बी-चौड़ी प्रक्रिया बता दी, तो एक एजेन्सी खोलनी पड़ेगी और फिर नवीन भ्रष्टाचार। भारत में जब तक लोकपाल विधेयक को मंजूरी नहीं मिलती तब तक इस देश का भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हो सकता। आज भी हमारे देश में अंग्रेजों का ही कानून लागू है, उसके तहत सारे ही राजनेता, नौकरशाह कानून से ऊपर हैं। उन्हें सीधे ही सजा नहीं हो सकती। इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि लोकपाल विधेयक में प्रधान मंत्री को भी लेना चाहिए और अब्दुल कलाम ने तो कहा था कि उसके घेरे में राष्ट्रपति भी आना चाहिए। लेकिन यह बिल कभी भी पास होने की स्थिति में नहीं आता। इसलिए कुछ मूलभूत मुद्दों पर परिवर्तन हो जाए तो देश का कायाकल्प हो सकता है लेकिन इसके लिए ना तो नौकरशाह फाइल को आगे बढ़ाने देंगे और ना ही राजनेता उस पर अमल करेगे। केवल जनता ही दवाब बना सकती है।
- This post has been removed by the author.
- Bahut accha lekh hai. Main aapke sath hun.
- दुध की सफेदी काली पड़ने लगी है। क्योंकि दिन प्रतिदिन दुध के दामो मैं उछाल आ रहा है। दुध है की पानी -पानी होता जा रहा है और लोग कमा -कमा के काले हुए जा रहे हैं। अब लोग करे भी तो क्या करे । बिना दुध के काम भी तो नहीं चलने वाला है। सुबह उठते ही घर के बड़े चाय और बच्चे दुध की मांग शुरू कर देते हैं। दुध बेचने वाली कंपनिया मोटी काट रही है। क्योंकि उन्हें पता है की बिना दुध के काम तो चलने वाला नहीं है। सरकार अपने आप में मस्त है उसे अभी फ़िलहाल कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। क्योंकि वो पूरी तरह से बहुमत में है। और चुनाव अभी बहुत दूर है। आखिर चुनाव के लिए चंदा तो येही कंपनिया ही देंगी ना। आखिर विरोध करे तो करे कौन। शायद हम और आप मिल कर के इसका विरोध कर सकते हैं। सड़क पर खड़े हो कर के नारे लगाने की कोई जरुरत नहीं है और न ही कोई नई पार्टी बनाने की जरुरत है। इसका विरोध तो हम अपने -अपने घरो में बैठ कर के ही कर सकते हैं। बस करना ये ही है की हमें हफ्ते में किसी भी एक दिन दुध का घर बैठे बहिष्कार करना होगा। उस दिन कोई भी चाय या कोफ़ी नहीं पिएगा। बच्चो को उस दिन दुध की जगह ताजे फलो का रस पिलाना होगा। फिर देखिये कैसे दुध बेचने वाली कंपनियों की आँखे खुलती है। अगर हमने मिलकर के सिर्फ हफ्ते में एक दिन दुध का बहिष्कार कर दिया तो इन कंपनियों की ऐसी की तैसी हो जाएगी। और अब करना पड़ेगा। अगर आप सभी लोग चाहते हैं की महंगाई रुके तो।
- विचार आन्दोलित करते हैं... कुछ करने का आदेश देते हैं...
- मुझे लगता है कि ये मुद्दा इतना सहज नहीं है इसलिए इस पर अपे्क्षित टीप , योजना के लिए एक रूप रेखा और बहुत सी विस्तृत बातें हैं कहने वाली अलग से टिप्पणी करने आता हूं ।
- अच्छा विचार है, सूचना के अधिकार कि तरह ही हमारे लोकतंत्र के विकास में मील का पत्थर साबित हो सकता है. इस तरह के तरीके निकालने कि आवश्यकता इसीलिये पड़ती है क्योकि हम अच्छे प्रतिनिधि नहीं चुन पाते. पता नहीं हम इतने सक्षम कब होंगे कि धर्म, जाती, संप्रदाय से ऊपर उठ कर चुनाव कर सकें. पता नहीं कब पढ़े लिखे लोग कब राजनीती कि और रुख करेंगे और कब तक हमें कदम कदम पर अपने अधिकार मांगने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा. इस दिशा में इतना सोचने और एक रास्ता निकालने के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद....! आशा है कि इस दिशा में आगे प्रयास हो सकेगा.
- आइडिया तो अच्छा है पर बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन
- काजल कुमार जी आप अपने बहुमूल्य विचार और सुझाव तो रखिये १०० शब्दों में ,फिर हम सब मिलकर जैसे देश को आजादी दिलाये थे , उसी तरह बिल्ली के गले में घंटी भी बांध देंगे और इन भ्रष्टाचारियों से देश को मुक्ति भी दिला देंगे / बस जरूरत है मतभेद भुलाकर एकजुट होने की /
- प्रजातंत्र में जनता कि सरकार जनता के लिए कही जाती है किन्तु हम तो हर बार ठगे जाते हैं. ये जानकर भी ये हमारे जनप्रतिनिधि दुबारा नहीं नजर आनेवाले . संसद में सिर्फ महीने कम हैं ये दो महीने साल में मांग रहे हैं या फिर पूरे संसद के कार्यकाल में. संसद में हर सत्र में कुछ दिन होने चाहिए जिसमें जनता सीधे सवाल पूछ सके. उसका माध्यम जो भी रखा जाए. अब इस प्रजातंत्र के वर्त्तमान स्वरूप में ये आवश्यक हो गया है कि निरंकुश सांसदों को पांच साल के लिए ये लाइसेंस न दे दिया जाय. अगर चुना गया प्रतिनिधि अपनी जनता का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ है तो जनता को सामने आने का अधिकार भी होना चाहिए क्योंकि कितने सांसद तो सिर्फ नाममात्र के सांसद होते हैं. १८ वर्ष के मतदाताओं के लिए ये चुनाव क्या अर्थ रखता है? अगर फ़िल्म अभिनेता सामने है तो उसे उसका ग्लैमर दिखाई देता है और वह चुन कर आ भी जाता है. फिर वह सिनेमा और संसद के बीच न्याय नहीं कर पाता है. कुछ को तो सम्पूर्ण कार्य काल में भी एक भी प्रश्न पूछने या फिर अपने क्षेत्र कि समस्या को प्रस्तुत करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती है. अब संसद में जनता कि भागीदारी इस रूप में अत्यंत आवश्यक हो चुकी है. इस तरह से जनता की प्रश्न प्रहार में साझीदारी न सिर्फ सरकार में विश्वास को बढ़ाएगी बल्कि ये जनप्रतिनिधि निरंकुश बादशाह होने के अहसास से भी मुक्त हो सकेंगे. चुनाव में मतदान के प्रति जो निराशा और उदासीनता आज एक बड़े तबके में है , उसका शमन हो सकता है और फिर प्रतिनिधि का चुनाव पार्टी के नाम पर नहीं बल्कि उसके अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के अनुसार ही होगा.
- भ्रष्टाचार का विषय बहुत ही व्यापक है , यह नया भी नहीं है । आचार्य चाणक्य से लेकर अलाउद्दीन खिलज़ी , फ़िरोज़ शाह ने लेकर राबर्ट क्लाइव और जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक भ्रष्टाचार के किस्से भरे पड़े हैं । क्राइम फ़ॉर पैशन और क्राम फ़ॉर मनी ही मुख्य अपराध होते हैं । इस विषय पर बहुत विस्तृत पोस्ट फिर कभी लिखेंगे । धन्यवाद ।
- दशा सही में विचारनीय है देश की..देश की राजधानी में जब स्थिती खराब है तो बाकी जगह के बारे में बात करना बेमानी है। हर व्यक्ति जहां सत्ता में है, नौकरी में है, वहीं पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने पर जुटा है। पर सिर्फ सवाल पूछने से कुछ नहीं होगा। जनता को दवाब बनाना ही होगा, तभी कुछ हो पाएगा। आज देश की राजधानी के अस्पतालों में, शिक्षण संस्थानों में आसपास दूर दराज के लोग आते है. क्योंकी वहां स्वास्थ्य औऱ शिक्षा की सुविधा उपलब्ध नहीं है। सवाल पूछने के लिए दिल्ली आने की कोई जरुरत नहीं है। सभी सांसदों को अपने ही इलाके में सवाल का जवाब देने की व्यवस्था करनी होनी चाहिए। बीमार पड़ने पर अपने ही जिले के स्वास्थ्य केंद्रों पर नेताओं को इलाज करना चाहिए। ताकि उन्हें पता चले की वहां के हालात कैसे है। उनके बच्चे प्राइवेट स्कूलों में क्यों पढ़ते हैं, क्योंकी सरकारी स्कूल की स्थिति बिगाड़ी हूई है नेताओं ने। हर नागरिक को जबतक अपने ही इलाके में मूलभूत सुविधाएं नहीं मिलती तब तक कुछ नहीं हो सकता। हर काम के लिए दिल्ली भागने की आदत नहीं होनी चाहिए। सवाल पूछने के लिए अगर दिल्ली आना पड़े तो क्या फायदा। नेता जब वोट मांगने दरवाजे पर आते हैं. तो वोटर को अपने प्रशन का उत्तर भी अपने घर पर न सही, अपने इलाके में मिलना ही चाहिए। ठीक है कि भ्रष्टाचार को खत्म नहीं किया जा सकता पर उस पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है, ताकी उसकी मार से जनता त्राही त्राही न करे। यही स्थिती हर क्षेत्र में लायी जा सकती है।
- काफी विचाराधीन समस्या और गंभीर सोंच, काश इस सोंच को यथार्थ मिले .........
- aaj ek aam insan kathputali ban ke rah gaya hai, jab hum doosron ke isaare par nachna band kar denge, tabhi yah andolan aage badega, badiya prastuti ke sath ek sandesh jis par hum sabhi ko amal karna chahiye aapko dhnyvad
- जनता के प्रश्न स्वम जनता पूछेगी तो प्रश्न पूछने के जो पैसे लिए जाते है वे किसको मिलेंगे |सर जी मेरा तो कहना यह है की "अपने माहोल पे इल्जाम लगते क्यों हो ?तुमने खुद राह्जनों को नए चहरे बख्शे अब लुटे हो तो लुटो शोर मचाते क्यों हो | बुलबुलें खुश थी खुशियों के तराने गाये ,लेके खारों से achchhon को चमन सौंप दिया ,शीश dhuntee है अब फूलों kee ye ghaayal khushboo, ye तुमने kyaa kiyaa ye kisko चमन सौंप दिया
- "प्रश्न काल के लिए साल में दो महीने आरक्षित होना चाहिए, जिसमे सिर्फ जनता को मंत्रियों और अपने जनप्रतिनिधियों से प्रश्न पूछने का अधिकार होगा और संसद के सभापति जनता के प्रश्न काल को संचालित करेंगे ..." भ्रष्टाचारी लोग इसमें भी भ्रष्टाचार का रास्ता निकाल लेंगे। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की जड़ तो वास्तव में हमारी कुशिक्षा है। देश के स्वतन्त्र हो जाने के बाद भी हमारी अपनी कोई शिक्षानीति नहीं बनी और हम आज तक अंग्रेजों की बनाई शिक्षनीति, जिसका उद्देश्य ही भ्रष्टाचार को बढ़ा कर भारत को लूटना था, को ही कुछ फेरबदल के साथ अपनाये हुए हैं। जरूरत है तो हमारी अपनी शिक्षानीति को जो अपनी संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्र के प्रति समर्पण सिखाये। शिक्षा से ही संस्कार बनते हैं और संस्कार से विचार जो कि हमसे कर्म करवाते हैं। आज हम भ्रष्टाचार जैसे कर्म कर रहे हैं तो सिर्फ कुशिक्षा के कारण ही। अन्त में इतना अवश्य कहूँगा कि लोगों में जागरूकता बढ़ाने का आपका कार्य अत्यन्त सराहनीय है।
- समस्या समय आवंटन की नहीं है,समस्या प्रश्नकाल और अन्य मौकों पर उठे सवालों पर सरकारी कार्यान्वयन की है। केन्द्र सरकार की इस मसले पर भूमिका जनविरोधी रही है।
- चरम आदर्शवादिता भरी, चरम आक्रोशवाली पोस्ट। भावना अच्छी है किन्तु आक्रोश, विवेक को विस्थापित कर देता है। हम लोग 'जनता' या 'प्रजा' ही बने रहना चाहते हैं, 'नागरिक' नहीं बनना चाहते। 'नागरिक' बनने पर लोकतन्त्र में भागीदारी निभानी पडती है, कुछ लोगों की नाराजी मोल लेनी पडती है। उसके लिए हममें से कोई भी तैयार नहीं। हम बिना कुछ खोए सब कुछ हासिल करना चाहते हैं। परिणामस्वरूप हमें कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है और चीजें एक के बाद एक, हमारी मुट्ठी से निकलती जा रही हैं। देश को इस मुकाम पर हम ही लाए हैं, यह अपने आप यहॉं नहीं पहुँचा। हम अपने नेताओं को नियन्त्रित करने को तैयार नहीं। उन्हें खुली छूट देकर उनसे अपनी स्वार्थ सिघ्दि की प्रत्येक गुंजाइश कायम रख्ना चाहते हैं। सब कुछ सम्भव है यदि हम तय कर लें, दूसरे के कुछ करने की प्रतीक्षा छोड कर खुद करने में लग जाऍं, कुछ खोने को तैयार हो जाऍं और लोकतन्त्र को अधिकार ही नहीं, जिम्मेदारी भी मानना शुरु कर दें। कामयाबियॉं हमारे कदम चूमने को बेकरार हैं, हम ही कदम बढाने को तैयार नहीं।
- मेरे विचार से इतना कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं पडेगी अगर मात्र कुछ नियम लगा दिये जाएं । पहले तो सभी नेताओं की सैलरी सामान्य कर्मचारियों जितनी ही हो और किसी भी नेता चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यूं न हो की अधिकतम् सम्पत्ति 10 लाख से अधिक होने पर उन्हे अपदस्थ करके उनकी सारी सम्पत्ति राजकोष में जमा कर दिया जाए। दूसरी बात- सभी नेताओं के ऐशोआराम की व्यवस्था बिलकुल ही सामान्य जनता की तरह हो। क्यूकि गद्दी उन्हे जनता की सेवा के लिये मिलती है सो सच्चे सेवक के पूरे लक्षण हों। उन्हे भी सामान्य गड्ढे वाले सडकों पर विना ए सी वाली गाडी से ही क्षेत्रों का दौरा अनिवार्य हो तब जाकर वो सडकों और अन्य अव्यवस्थाओं की तरफ ध्यान देंगे। चुनाव लडने की न्यूनतम योग्यता स्नातक हो तथा चुनाव का आवेदन देने के बाद उन्हें भी सिविल आदि की तरह परीक्षाएं देनी पडें, इससे शाशन की बागडोर योग्य व्यक्ति के हाथ आएगी। चुनाव लडने वाले पर कोई भी अपराधिक मामला दर्ज न हो और इसकी पुष्टि उसके लोकल थाने से की जाए। चुनाव लडने वाला व्यक्ति चुनावी गतिविधि के लिये राजकोष का पैसा न लगा सके और एक निश्चित राशि तक ही खर्च कर सके। जनता को ये अधिकार हो कि जब चाहे वो सर्वकार से जबाब तलब कर सके फिर चाहे किसी भी संचार माध्यम से क्यूं नहो। कोई भी नेता किसी भी निर्माण कार्य के पहले पूरी जनता से एस एम एस ओटिंग कराये कि जनता की उसपर राय क्या है, और यह ओटिंग फ्री हो। इस तरह से और भी बहुत सी बातें लागू करनी होंगी पर सबसे पहले अगर ये उपरोक्त नियम लागू हो गये तो नेताई में गुण्डागर्दी तो शर्तिया कम हो जायेगी।
- लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है... और हम जो भी विकास करना चाहते है उसके मूल में जनता ही तो है... सो जनता को सवाल उठाने का पूरा हक है... बेहतर बात उठाई है, ये होना ही चाहिए.... और इसके लिए हमे मिल का प्रयास करने होंगे....
- मुझे इस बात की बहुत ज्यादा कोफ़्त होती है, जब बिना प्रयास किये हुए यह मान लिया जाता है कि यह काम तो हो ही नहीं सकता है.... आपका यह प्रश्न " क्या आप समझते हैं कि जनता को सरकार को संयुक्त हस्ताक्षर अभियान के जरिए,आदेश देने का अधिकार है?" बिलकुल हो सकता है और होना भी चाहिए....लोकतंत्र का अर्थ ही है जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा.....लेकिन जब जनता को ही अपनी शक्ति का भान नहीं है तो कोई क्या करे...मुट्ठी भर भ्रष्ट नेताओं की दुहाई देने वाले या तो डरपोक है या निकम्मे, जब समाज को बदलना है तो भिड़ जाना ही होगा, अगर हम सोच लें तो क्या यह संभव नहीं है....गाँधी जी सत्याग्रह के बल पर अंग्रेजी हुकूमत को घुटने पर ले आये थे और हम गाँधी के देश में अपने ही लोगों की गुंडागर्दी से डर कर बैठे हुए हैं...आज पोलिटिक्स मात्र गुंडों का खेल होकर रह गया है...और इसके लिए जिम्मेवार हमारा तथाकथित माध्यम वर्गीय समाज है.... हमने हमेशा समस्याओं से बचके निकलना सीखा है...और बाद में वही समस्याएं विकराल रूप ले लेतीं है...फिर हम आराम से कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता है....वही हाल राजनीति का रहा है....राजनीति में जाना बुरी बात है....राजनीति बुरे लोगों का काम है, भले लोग राजनीति में नहीं जाते हैं ....यही तो सुनते रहे हैं बचपन से, और हमेशा हैरानी होती रही है मुझे कि , देश के किये काम करना कैसे बुरा हो सकता है ? हमारे बड़े बुजुर्गों ने सिर्फ मुसीबतों से बचने के लिए गलत छवि बना दी और हमने यकीन कर लिया....और यही सबसे बड़ा कारण है कि आज पोलिटिक्स में गुंडों का आधिपत्य है, हमलोग ये क्यूँ नहीं सोचते राजनीति भी एक करियर है...बच्चों को उसमें भी जाना चाहिए....हर नौकरी कि तरह यह भी एक नौकरी है...इसके लिए भी पाठ्क्रम होने चाहिए....नयी पीढ़ी को ट्रेनिंग मिलनी चाहिए....कितनी अजीब बात है एक पार्क तो खूबसूरत बनाने की ट्रेनिंग है,, बिल्डिंग को सजाने की ट्रेनिंग है ....और अपने देश को व्यवस्थित करने की कोई ट्रेंनिग नहीं ....लानत है जी... हमारे अपने लोग कितनी बड़ी-बड़ी अन्तराष्ट्रीय कंपनियों में अपने बुद्धि-विवेक से अपना आधिपत्य साबित कर चुके हैं....क्या वो लोग अपने देश में इस काबिल नहीं थे....?? जब हम अपने देश के विदेश मंत्रालयों के प्रवक्ताओं के देखते हैं और सुनते हैं तो आत्महत्या कर लेने का दिल करता है...लगभग २ अरब आबादी वाले देश में एक ढंग का प्रवक्ता नहीं मिलता इनको जो अपने देश की गिरती साख को सम्हाल सके....जो ढंग से बात कर सके....जो भी आता है शिफारिशी जोकर होता है..... अब समय आ गया है कि जनता जागे और अपनी ताकत को पहचाने...उसका उपयोग करें, अगर इस तरह के हस्ताक्षर अभियान की शुरुआत हो जाए तो फिर देश को सुधरने से कोई नहीं रोक सकता है....संसद में बैठे हुए जो लोग हैं उन्हें हमने चुना है....उन्हें वही करना होगा जो, हम चाहेंगे.....और जनता हमेशा सही ही चाहेगी....लोग कहेंगे 'अदा' सपने देखती है....ये नहीं हो सकता....तो उनसे मैं कहूँगी कि जब उस दिशा में कोई काम किया ही नहीं तो उसकी सफलता पर पहले से संदेह क्यूँ करना....?? अरे दिल्ली जाना है तो दिल्ली की गाड़ी में बैठो.....घर में बैठ कर भगवान् से मानना कि हमें दिल्ली पहुंचा दो...बेवकूफी है...या फिर बिना गाड़ी में बैठने का प्रयास किये हुए मान लेना कि हम तो दिल्ली जा ही नहीं सकते गलत होगा..... संयुक्त हस्ताक्षर करके कोशिश तो कीजिये ....आपके आदेश का पालन होगा अवश्य ये मेरा विश्वास है.....
- ---फ़िर एक नया तरीका , भ्रष्टाचार के तालाब में और नई मछलियां डालने का --सिर्फ़ हर नागरिक अपना-अपना कार्य जो उसे मिला है या दिया गया है- सत्य, न्याय व उचित ढंग से, बिना कैश या काइन्ड लाभ सोचे , करे तो सब कुछ स्वयं ठीक होजायेगा; और तभी ठीक होगा और कोई राह नहीं है। ---एक कार्य में जितने अधिक लोग होंगे उतना ही अधिक भ्रष्ट-आचरण । कविता पढिये--- सुधार की इबारत ..... आजकल बाढ़ आई हुई है, सेवा ,देश सेवा ,समाजसेवा करने वालों व् - करनेवाली संस्थाओं की । सभी अपने- अपने ढंग से , कर रहे हैं ,सेवा , लिख रहे हैं ,सुधार की इबारत । पर सुधार है कहाँ ? कहीं नहीं ,क्यों ? सुधार की इबारत ,लिखना नहीं है , स्वयम को ही ,सुधार की , नींव बनाना होता है , सुधार की इमारत बनाना होता है। सुधार स्वयम के सुधार से होता है, क्या कोई कर पा रहा है ?
- मैं ही क्यों, देश का कोई भी सभ्य नागरिक आज तक यह नहीं समझ पाया कि आम आदमी का प्रतिनिधि वीआईपी क्यों होता है? इसके अलावा संसद में इतना हो-हल्ला होता है, सांसद संसद का बहिष्कार करते हैं, कई बार मार्शल को बुलाना पड़ता है। इतना कुछ होने के बाद जब सांसदों के वेतन या भत्ते बढ़ाने वाला विधेयक कब बिना शोरगुल के कैसे पास हो जाता है? आखिर हमारे प्रतिनिधि किस काम के एवज में इतनी सुविधाएँ लेते हैं? कितने ईमानदार नेताओं से आपका पाला पड़ा, कोई बता सकता है? लोकतंत्र के नाम पर देश की जड़ों को खोखला कर रहे हें, ये नेता, लेकिन हम कब समझ पाएँगे, यह नहीं जानते। देश में भ्रष्टाचार का कोई भी मामला हो, तो इन नेताओं की मिलीभगत सामने आती ही है। आखिर पद मिलने के बाद ये इतने स्वार्थी कैसे हो जाते हैं? मैं तो उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ, जब कोई शिक्षक अपने शिष्य के नेता बनने के बाद खुश होए और उसके बाद उसके भ्रष्ट होने पर सरे आम उसकी पिटाई करे। मेरी एक ही चाहत है ऐसा दृश्य देखने की। कब समझेंगे, ये नेता आम आदमी का दर्द ? डॉ महेश परिमल
- निताँत अव्यवहारिक परिकल्पना, अपने अपने क्षेत्र के साँसदों से ज़वाबदेही तक ठीक है, जब हमने प्रतिनिधि चुना है, तो अलग से अपनी भागीदारी की माँग.. कानून व्यवस्था के लिये चुनौती होगी !
- सर जिस देश मे जनता के सवाल् पुछने के भी रुपया यहा के संसद सदस्य लेते है उन्हे कमाइ का दो आर्क्ष्सित् महिने मिल जयेङ्गे।
- जनभ्रम कब दूर होगा? जन,जनसेवक और जनतंत्र... कहते हैं कि एक दूसरे के पूरक है. जन जल रहा है, जनसेवक मेवा खा रहे हैं और जनतंत्र में से जन गायब हो चुका है. तंत्र जन को लूट रहा है और जन भ्रम में जीए जा रहा है. उसको लग रहा है कि विकास हो रहा है, पेड़-पौधों को काटकर, झुग्गियों को जलाकर/उजारकर,जंगलपुत्रों पर आग बरसाकर, संसद में प्रश्न के बदले धन लेकर, आईपीएल में सट्टा लगाकर, मेडिकल कॉसिल में घपला कर के, शहीदों के विधवाओं को विलखता छोड़कर, संयुक्त और अब व्यक्तिगत परिवार को तोड़कर. ऐसे में जिन सांसदों से हम सवाल पुछेंगे क्या उनको मालुम नहीं होता कि उनके क्षेत्र की समस्या क्या है? मालुम होते हुए अगर वे वातानुकूलित हवा को छोड़कर चिलचिलाती धूप में पत्थर तोड़ती औरत की मुसिबतों को देखने के लिये नहीं आ सकते, तो इन सांसदों और विधायको से प्रश्न पूछ कर समय जाया करने से कोई फायदा हमे नजर नहीं आता. इन महानुभावों को संसद/विधानसभाओं में घेरने के बजाय उनके क्षेत्र में ही उनके कर्तव्यों के निर्वहन के लिये उन पर हर संभव दबाव बनाया जाए तो ज्यादा अच्छा होगा. आशुतोष कुमार सिंह दिल्ली zashusingh@gmail.com
- बेईमान-ईमानदार, भ्रष्ट-अभ्रष्ट, मेहनती-हरामखोर...सब अपना काम सदियों से करते आ रहे हैं। पर यह आशा सदा बनी रहती है कि एक दिन सब ठीक और सुन्दर हो जाएगा। आप लगे रहें, मैं भी पिछले लगभग ४ दशकों से लगा हुआ हूं और संतोष की बात यह है कि हमारा साथ देने वाले बहुत हैं। -कार्टूनिस्ट चन्दर/ www.cartoonpanna.tk
- हम इस पवित्र पावन काम में पूरी तरह आपके साथ हैं हमारे योग्य जो भी हो निसंकोच हमें बताएं
सिस्टम में रह कर बेनकाब करने की तरकीब बताएं
ReplyDelete.
ReplyDeleteमैं सोशल एक्टीविस्ट तो नहीं,
पर यह ड्राइँगरूम गॉसिप थ्योरी है ।
पहले हमें क्यू में लगने की अनिवार्यता सीखनी होगी,
दो महीने का भगदड़ अकल्पनीय है !
महाशय इतने विचारनीय विषय को रखने के लिए सबसे पहले धन्यवाद आपका ,आज हम देश की चरमराती हुई व्यवस्था को देखकर विवश हैं अपनी ही नादानी पर ,क्योंकि हम ही वो जनता हैं जो अपने बहुमूल्य वोटों से इन भ्रष्ट नेताओं को गद्दी सौंप देते हैं .उनके पिछले काले कारनामो को जानते हुए भी ,जनता समझदार भी है ,नादाँ भी है, अशिक्षित भी है ,शिक्षित भी है पर जहाँ सबसे बड़ी बात आती है वो है गरीबी | जब गरीबी अपना मुंह खोलती है तो उसमे क्या जा रहा नहीं जानती, बस हमारे यहाँ यही बात १०० प्रतिशत लागू होती है ,कितने अल्पसंख्यक लोग हैं जिनके क्षेत्र से भारी बहुमत से नेता जीत कर कुर्सी पाते हैं ,और उस कुर्सी पाने के लिए भूखी जनता को यदि वोटों की लालच में एक दिन भर पेट उनके पसंद का खाना शराब मिल जाये ये कह कर की हम यदि आपके क्षेत्र से जीत गए तो आपको ऐसी खुशियाँ हर रोज़ मिलेगी .और नादाँ अशिक्षित के साथ समझदार और शिक्षित जनता भी गरीबी के कारण झांसे में आ जाती है .तो यहाँ सब बात धरी की धरी रह जाती है |जब संविधान में कुछ नए नियम लागू हो जाएँ जो जनता के हित में हो तो काफी हद तक ये भरष्टाचार रुक सकता है .नेताओं के साथ साथ जितने भी अफसर हैं जो जनता का काम करने के लिए मनमाना घूंस लेते हैं काफी सुधार हो सकता है. पर शिक्षा और जागरूकता के साथ जरुरी है जनता को भर पेट भोजन का मिलना ,क्योंकि जब पेट की आग भड़कती है तो सारी समझदारी एक तरफ हो जाती है ...और काफी क्षेत्रों में ये बात ही ज्यादा जिम्मेवार है भ्रष्टाचार के लिए........
ReplyDeletehttp://rajninayyarmalhotra.blogspot.com/
rajni.sweet11@gmail.com
भारत में जब तक लोकपाल विधेयक को मंजूरी नहीं मिलती तब तक इस देश का भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हो सकता।
ReplyDeleteहमारे बड़े बुजुर्गों ने सिर्फ मुसीबतों से बचने के लिए गलत छवि बना दी और हमने यकीन कर लिया....और यही सबसे बड़ा कारण है कि आज पोलिटिक्स में गुंडों का आधिपत्य है, हमलोग ये क्यूँ नहीं सोचते राजनीति भी एक करियर है...बच्चों को उसमें भी जाना चाहिए....हर नौकरी कि तरह यह भी एक नौकरी है...इसके लिए भी पाठ्क्रम होने चाहिए....नयी पीढ़ी को ट्रेनिंग मिलनी चाहिए...
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